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इ॒होप॑ यात शवसो नपातः॒ सौध॑न्वना ऋभवो॒ माप॑ भूत। अ॒स्मिन्हि वः॒ सव॑ने रत्न॒धेयं॒ गम॒न्त्विन्द्र॒मनु॑ वो॒ मदा॑सः ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ihopa yāta śavaso napātaḥ saudhanvanā ṛbhavo māpa bhūta | asmin hi vaḥ savane ratnadheyaṁ gamantv indram anu vo madāsaḥ ||

पद पाठ

इ॒ह। उप॑। या॒त॒। श॒व॒सः॒। न॒पा॒तः॒। सौध॑न्वनाः। ऋ॒भ॒वः॒। मा। अप॑। भू॒त॒। अ॒स्मिन्। हि। वः॒। सव॑ने। र॒त्न॒ऽधेय॑म्। गम॑न्तु। इन्द्र॑म्। अनु॑। वः॒। मदा॑सः ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:35» मन्त्र:1 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:5» मन्त्र:1 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब नव ऋचावाले पैंतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शवसः) प्रशंसा करने योग्य बलयुक्त (नपातः) पतनरहित अर्थात् हानि से रहित (सौधन्वनाः) सुन्दर धनुष् अन्तरिक्ष में स्थित जिनके उनके सम्बन्धी (ऋभवः) बुद्धिमानो ! आप लोग (इह) यहाँ (उप, यात) समीप में प्राप्त हूजिये (वः) आप लोगों के (अस्मिन्) इस (सवने) क्रियामय व्यवहार में (हि) जिस कारण (वः) आप लोगों के (मदासः) आनन्द (रत्नधेयम्) धन धरने के पात्ररूप (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्य्य युक्त जन के (अनु, गमन्तु) पीछे जावें, इस कारण इसको प्राप्त होकर कहीं (मा) मत (अप, भूत) अपमान से युक्त हूजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो लोग उत्साह से ऐश्वर्य्य की वृद्धि करने की इच्छा करते हैं, वे सब जगह सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर सर्वत्र सत्कारयुक्त और जो आलस्ययुक्त होते हैं, वे दरिद्रपन से अभिभूत अर्थात् सदा तिरस्कृत होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे शवसो नपातः सौधन्वना ऋभवो ! यूयमिहोप यात वोऽस्मिन्त्सवने हि वो मदासो रत्नधेयमिन्द्रमनुगमन्तु। अत्र एतत्प्राप्य क्वचिन्मापभूत तिरस्कृता मा भवत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) अस्मिन् (उप) (यात) प्राप्नुत (शवसः) प्रशस्तबलाः (नपातः) अविद्यमानह्रासाः (सौधन्वनाः) शोभनानि धन्वान्यन्तरिक्षस्थानि येषान्तेषामिमे (ऋभवः) मेधाविनः (मा) निषेधे (अप) (भूत) अपमानयुक्ता भवत (अस्मिन्) (हि) यतः (वः) युष्माकम् (सवने) क्रियामये व्यवहारे (रत्नधेयम्) (गमन्तु) गच्छन्तु (इन्द्रम्) परमैश्वर्य्यम् (अनु) (वः) युष्माकम् (मदासः) आनन्दाः ॥१॥
भावार्थभाषाः - य उत्साहेनैश्वर्य्यमुन्नेतुमिच्छन्ति ते सकलैश्वर्य्यं प्राप्य सर्वत्र सत्कृता ये चालसास्ते दरिद्रत्वेनाऽभिभूताः सदा तिरस्कृता भवन्ति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वानांच्या कृत्याचे वर्णन करण्याने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जे लोक उत्साहाने ऐश्वर्याची वृद्धी करण्याची इच्छा बाळगतात, ते संपूर्ण ऐश्वर्य प्राप्त करतात व त्यांचा सर्वत्र सत्कार होतो. जे आळशी असतात ते दारिद्र्याने अभिभूत असून तिरस्कृत होतात. ॥ १ ॥